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कविता

मूस भेखड़ा

लीलाधर जगूड़ी


(एक पहाड़ी पक्षी)

प्‍यारी चीजें विभाजित करती हैं
जैसे कि हिमालय
यह देता नहीं लेता है हमारा दिल
यह समुद्र में भी पीछा नहीं छोड़ता

मन को बाँट देती है सारी चीजें
रास्‍ते में पड़ती हैं जो अप्रसिद्ध नदियाँ
वे मुझे जाने नहीं देतीं

डाँडे-काँठे देखने नहीं देते मुझे
अपनी छवि के पार

पंछियों में धूसर पंछी मुस-भेखड़ा
ललचाता है मुझे पकी हुई हिंसर* खोने के लिए
और यहीं रुक जाने के लिए
मुस-भेखड़ा न परदेस जाता है
न लंबी उड़ान लेता है
न घोंसले बनाता है
बल्कि चूहे की तरह मिट्टी खोदता है
और बिल बनाकर रहता है

मैं जहाँ भी रहूँगा
दिमाग में रहेगा मटमैला मुस-भेखड़ा
कोई तो होना चाहिए अपना
जिसके पंख हों पहाड़ों की तरह
तो भी बिल में रहता हो मेरी तरह।

* जंगली झाड़ी पर लगनेवाला पीले रंग का छोटा-सा मीठा फल।

 


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